गाँधी की हत्या का पुनर्सृजन क्यों?

हाल में30 जनवरी 2019 कोजब पूरा देश राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का 71वां बलिदान दिवस मना रहा थाउस दिन अलीगढ में हिन्दू महासभा के सदस्यों ने गांधीजी की हत्या की घटना का सार्वजनिक रूप से पुनर्सृजन किया. हिन्दू महासभा की सचिव पूजा शकुन पाण्डेय के नेतृत्व मेंभगवा वस्त्र पहने कुछ कार्यकर्ता वीडियो शूटिंग करने के नाम पर एक स्थान पर इकठ्ठा हुए. पाण्डेय ने गांधीजी के पुतले पर तीन गोलियां दागीं और फिर पुतले के अन्दर छुपाये गए गुब्बारे में से खून रिसने लगा. वहां उपस्थित महासभा के नेताओं ने गाँधी मुर्दाबाद’ और गोडसे जिंदाबाद’ के नारे लगाये. उन्होंने महात्मा नाथूराम गोडसे अमर रहें’ का नारा भी लगाया. उन्होंने घोषणा की कि अब से वे हर वर्ष,गांधीजी की हत्या का पुनर्सृजन करेंगेजिस प्रकार दशहरे पर रावण का पुतला जलाया जाता है. यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. पाण्डेय के फेसबुक पेज पर उनका एक पुराना फोटो भी लगाया गया हैजिसमें वे मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और केंद्रीय मंत्री उमा भारती के साथ नज़र आ रहीं हैं. पुलिस ने मौके पर मौजूद सभी व्यक्तियों के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज किया है. 

नाथूराम गोडसे और विनायक दामोदर सावरकर का महिमामंडन और गाँधी की निंदालम्बे समय से हिन्दू राष्ट्रवादियों (आरएसएस व हिन्दू महासभा) के एजेंडे पर रहे हैं. कुछ साल पहलेजब कांग्रेस के (वर्तमान) अध्यक्ष राहुल गाँधी ने एक आमसभा में यह कहा था कि गाँधी की हत्या आरएसएस के लोगों ने की थीतब उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया गया था और आरएसएस ने यह मांग की थी वे यह आरोप लगाने के लिए माफ़ी मांगे. इसी तरहभाजपा के एक नेता गोपाल कृष्णन ने कहा था कि गोडसे ने गलत व्यक्ति को निशाना बनाया. उसे नेहरु को मारना था क्योंकि वे ही भारत के विभाजन के लिए ज़िम्मेदार थे. भाजपा संसद साक्षी महाराजगोडसे को देशभक्त बता चुके हैं. आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक राजेंद्र सिंह ने कहा था कि गोडसे के इरादे ठीक थे परन्तु तरीका गलत था.

किसी हिन्दू राष्ट्रवादी ने कभी मुस्लिम लीग या जिन्ना को निशाने पर नहीं लिया जबकि इन दोनों की देश के विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका थी. पिछले कुछ वर्षों से गोडसे और सावरकर के प्रशंसक कुछ ज्यादा ही मुखर हो रहे हैं. हिन्दू राष्ट्रवादियों की दो शाखाओं - हिन्दू महासभा और आरएसएस - में कुछ मामूली अंतर हैं परन्तु मोटे तौर परभारतीय राष्ट्रवाद और भारतीय संविधान के मूल्यों के ये विरोधीउस विचारधारा के प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थक हैंजिसके कारण गांधीजी को अपनी जान गंवानी पड़ी.  

गाँधी के हत्यारों के समर्थक कहते हैं कि गाँधी के कारण मुसलमानों की हिम्मत इतनी बढ़ गयी कि वे पाकिस्तान मांगने लगे और उन्हीं के कारण भारत को 55 करोड़ रुपये पाकिस्तान को चुकाने पड़े. सच यह है कि गांधीजी की हत्या करने के प्रयास सन 1934 से ही शुरू हो गए थे और तबइनमें से कोई कारण मौजूद नहीं था. सन 1948 की 30 जनवरी को गांधीजी की हत्या का छटवां प्रयास किया गया था. इनमें से दो हमलों में गोडसे भी शामिल था. हत्या की बाद देश ने जो महसूस कियाउसे अत्यंत सारगर्भित शब्दों में व्यक्त करते हुए नेहरु ने कहा था, “रोशनी चली गयी है और चारों ओर अँधेरा है.” तीस्ता सीतलवाड ने अपने संकलन बियॉन्ड डाउट’ में गृह मंत्रालय के परिपत्रों और इस घटना पर लिखी गयी पुस्तकों (जगन फडनीस की मह्त्यामेची अखेर’, वायडी फडके की नाथूरामायण’ और चुन्नीभाई वैद्य कीस्पिटिंग एट दा सन’) के आधार पर इस घटना की पृष्ठभूमि पर विस्तृत प्रकाश डाला है. वे कहतीं हैं कि विभाजन और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने की बातें केवल बहाना थीं क्योंकि सन 19341940 और 1944 में भी गाँधी की हत्या के प्रयास किये गए थे और उस समय इन मुद्दों का कोई नामोनिशान तक नहीं था. गांधीजी की हत्या इसलिए की गयी थी क्योंकि वे एक महान हिन्दू थे और हिन्दू राष्ट्रवाद के कड़े विरोधी थे. हिन्दू राष्ट्रवादियों को यह एहसास था कि हिन्दू राष्ट्र के उनके लक्ष्य को हासिल करने की राह में गांधीजी सबसे बड़ा रोड़ा हैं. और हिन्दू राष्ट्रवादियों ने हमारे समय के महानतम हिन्दू को मौत के घाट उतार दिया. 

गांधीजी का हत्यारा गोडसेआरएसएस का प्रशिक्षित प्रचारक था. उसने सन 1938 में हिन्दू महासभा की पुणे शाखा की सदस्यता ग्रहण की और वह अग्राणी’ नामक पत्रिका का संपादक था. इस पत्रिका के शीर्षक के ठीक नीचे हिन्दू राष्ट्रशब्द लिखा होता था. इस पत्रिका में छपे एक कार्टून में गाँधी को दस सिर वाले रावण की रूप में दिखाया गया था (जिनमें से दो सिर पटेल और नेताजी बोस के थे). गाँधी की हत्या के बादतत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. पटेल ने हिन्दू महासभा के नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी को लिखे एक पत्र में कहा था कि हिन्दू महासभा और आरएसएस द्वारा फैलाये गए ज़हर के कारणदेश को राष्ट्रपिता को खोना पड़ा. गाँधीजी की हत्या के मुख्य आरोपी गोडसे के अतिरिक्तइस मामले में कई सहआरोपी भी थेजिनमें सावरकर शामिल थे. उन्हें पुष्टिकारक साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया था. जीवनलाल कपूर आयोगजिसने इस मामले की जांच की थीइस निष्कर्ष पर पहुंचा कि, “सभी तथ्यों को समग्र रूप से देखने सेइस के सिवाय किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता कि हत्या की यह साजिश सावरकर और उनके साथियों द्वारा रची गयी थी.

जहाँ तक गोडसे के आरएसएस का सदस्य होने या न होने का प्रश्न हैहमें यह ध्यान में रखना होगा कि उस समय आरएसएस का न तो कोई लिखित संविधान था और ना ही सदस्यता पंजी. आरएसएस पर से प्रतिबन्ध उठाने की एक शर्त यह थी कि वह अपना लिखित संविधान बनाएगा. अदालत मेंगोडसे ने इस बात से इनकार किया कि वह आरएसएस का सदस्य था. संघ ने भी कहा कि गोडसे का उससे कोई लेनादेना है. इसके विपरीतनाथूराम का भाई गोपाल गोडसेजो गाँधीजी की हत्या के मामले में सहअभियुक्त थाने लिखा, “उनकी (गाँधी) तुष्टिकरण की नीति,जिसे कांग्रेस की सभी सरकारों पर लाद दिया गयाने मुस्लिम अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया और अंततः इस कारण पाकिस्तान अस्तित्व में आया. तकनीकी और सैद्धांतिक दृष्टि से वो (नाथूराम) सदस्य था (आरएसएस का),परन्तु उसने बाद में उसके लिए काम करना बंद कर दिया. उसने अदालत में यह बयान कि उसने आरएसएस को छोड़ दिया हैइसलिए दिया ताकि वह आरएसएस के उन कार्यकर्ताओं की रक्षा कर सकेजिन्हें हत्या के बाद गिरफ्तार किया जायेगा. यह समझने के बाद कि अगर वह आरएसएस से अपने को अलग कर लेता है तो उससे उन्हें (आरएसएस कार्यकर्ताओं) को लाभ होगाउसने ख़ुशी-ख़ुशी यह किया.”  

संघ में सावरकर को उनके राष्ट्रवाद के कारण बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. सच तो यह है कि आरएसएस-हिन्दू महासभा का राष्ट्रवादसंकीर्ण हिन्दू राष्ट्रवाद हैजो मुस्लिम लीग द्वारा प्रतिपादित मुस्लिम राष्ट्रवाद का समान्तर और विलोम था. सावरकरअंग्रेजों से माफ़ी मांग कर अंडमान जेल से बाहर आये थे और उसके बाद उन्होंने द्विराष्ट्र (हिन्दू और मुस्लिम) सिद्धांत प्रतिपादित किया. इसका उद्देश्य थागाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस के भारतीय राष्ट्रवाद के उठते ज्वार का विरोध करना. गाँधी की हत्या के पुनर्सृजन की नीचतापूर्ण हरकतपिछले कुछ वर्षों में आरएसएस-भाजपा के बढ़ते बोलबाले का प्रतीक है.  

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

संघ की नायकों पर कब्जा करने की मुहिम

राम पुनियानी

गत 23 जनवरी को भाजपा और आरएसएस ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की याद में कई कार्यक्रम आयोजित किए। ऐसे ही एक कार्यक्रम के बाद हिंसा भड़क उठी और उड़ीसा के केन्द्रपाड़ा में कर्फ्यू लगाना पड़ा। आरएसएस व संघ द्वारा आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों में बोस और सावरकर व बोस और संघ के विचारों में साम्यता प्रदर्शित करने के प्रयास किए गए। इसका उद्देश्य यह साबित करना था कि सावरकर के सुझाव पर ही बोस ने धुरी राष्ट्रों (जर्मनी व जापान) के साथ गठबंधन बनाने का प्रयास किया था। इन दिनों आरएसएस और आईएनए के बीच समानताएं गिनवाई जा रही हैं और यह दिखाने के प्रयास हो रहे हैं कि बोस के राष्ट्रवाद तथा सावरकर व आरएसएस के राष्ट्रवाद में अनेक समानताएं थीं।

संघ परिवारनेताजी सुभाषचन्द्र बोस को एक ऐसे नेता के रूप में प्रस्तुत कर रहा हैजिसने भारत को ब्रिटिश राज से मुक्त करवाने के लिए एक नई रणनीति बनाई। संघ को इस महान स्वाधीनता संग्राम सेनानी के योगदान की अचानक याद क्यों आईसवाल यह भी है कि क्या आरएसएस के मन में कभी यह विचार आया कि उसे भारत को स्वाधीन करवाने के लिए संघर्ष करना चाहिएपिछले कुछ वर्षों से संघ लगातार राष्ट्रीय नायकों पर कब्जा करने के प्रयास में जुटा हुआ है। यह कहा जा रहा है कि अगर नेहरू की जगह सरदार पटेल भारत के प्रधानमंत्री होते तो कश्मीर समस्या खड़ी ही नहीं होती और देश कहीं अधिक प्रगति करता। सच यह है कि पटेल और नेहरूभारत की प्रथम केबिनेट के दो मजबूत स्तंभ थेजिन्होंने भारतीय गणतंत्र की नींव रखी। उनके बीच निश्चित रूप से मतभेद थे परंतु वे अत्यंत गौण थे।

जहां तक सुभाषचन्द्र बोस का सवाल है हम सब जानते हैं कि वे एक महान स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे। उनके जीवन का अधिकांश हिस्सा कांग्रेस में बीता और वे सन् 1939 में कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में पार्टी राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए थे। वे कांग्रेस के समाजवादी खेमे के एक प्रमुख नेता थे। समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता सहित कई मुद्दों पर उनके और पंडित नेहरू के विचार एक-से थे। यह सही है कि स्वाधीनता हासिल करने की रणनीति के संबंध में उनमें और कांग्रेस में मतभेद थे। गांधी के नेतृत्व में कांग्रेसअहिंसा के रास्ते स्वाधीनता हासिल करना चाहती थी। नेताजी इससे सहमत नहीं थे। कांग्रेस ने अंग्रेजों पर दबाव बनाने के लिए भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नेताजी ने यह तय किया कि अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए धुरी राष्ट्रों के साथ मिलकर एक सैन्य अभियान चलाया जाए और इसी उदेश्य से उन्होंने आईएनए की स्थापना की। नेताजी ने 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया। वे एक करिश्माई नेता थे और मूलतः ब्रिटिश विरोधी थे।

कांग्रेसअहिंसा के पथ पर चलने के लिए दृढ़ थी। उसने महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया। बोस के इस मामले में कांग्रेस से मतभेद हो गए। उन्होंने फासिस्ट जर्मनी और उसके मित्र राष्ट्र जापान के साथ गठबंधन बनाने का प्रयास किया। उस समय आरएसएस और हिन्दू राष्ट्रवादी क्या कर रहे थेहिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र की विचारधारा के जनक सावरकर ने उस समय हिन्दू राष्ट्रवादियों का आव्हान किया कि वे जापान और जर्मनी के खिलाफ युद्ध में ब्रिटेन की मदद करें। तत्कालीन सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने संघ की सभी इकाईयों को निर्देश दिया कि वे ऐसा कुछ भी न करें जिससे अंग्रेज नाराज या परेशान हों और ब्रिटिश-विरोधी संघर्ष से दूरी बनाए रखें। कुल मिलाकरजिस समय कांग्रेस भारत छोड़ो आंदोलन के जरिए अंग्रेजों पर दबाव बना रही थी और नेताजीआईएनए की सहायता से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थेउस समय सावरकर इस अभियान में जुटे थे कि अधिक से अधिक संख्या में भारतीय ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर अंग्रेजों की मदद करें। आरएसएस ने ब्रिटिश राज का विरोध करने के लिए कुछ भी नहीं किया। इस तरहहिन्दू राष्ट्रवादी एक ओर ब्रिटेन की युद्ध में सहायता कर रहे थे (सावरकर) तो दूसरी ओर वे लोगों से ब्रिटिश विरोधी संघर्ष से दूरी बनाए रखने का आव्हान कर रहे थे (गोलवलकर-आरएसएस)। और अब वे ही नेताजी का स्तुतिगान कर रहे हैं!

नेताजी विचारधारा के स्तर पर समाजवादी थे और नेहरू के करीब थे। दूसरी ओरगोलवलकर ने लिखा कि कम्युनिस्टहिन्दू राष्ट्र के आंतरिक शत्रु हैं। भाजपा ने अपनी स्थापना के समय गांधीवादी समाजवाद को अपना आदर्श बताया था परंतु यह सिर्फ चुनावी जुमला था। नेताजी की विचारधारा और कार्यआरएसएस की सोच और उसके कार्यक्रमों से तनिक भी मेल नहीं खाते। आज आरएसएस फिर भला कैसे हिन्दू राष्ट्रवादियों और नेताजी के बीच वे समानताएं गिनवा सकता हैजो कभी थीं ही नहीं। समस्या यह है कि चूंकि संघ ने स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा ही नहीं लिया इसलिए उसके पास अपना कहने को कोई राष्ट्रीय नायक हैं ही नहीं। भारत छोड़ो आंदोलन के समय आरएसएस के अटलबिहारी वाजपेयी एक युवा कालेज विद्यार्थी थे जिन्हें भूलवश जेल में डाल दिया गया था। उन्होंने बाद में माफी मांगी और जेल से रिहाई पाई। सावरकरअंडमान जेल भेजे जाने के पूर्व तक ब्रिटिश-विरोधी थे। उन्हेंवीर‘ के नाम से संबोधित किया जाता है परंतु उन्होंने भी जेल से रिहा होने के लिए अंग्रेजों से माफी मांगी थी। न तो हिन्दू महासभान मुस्लिम लीग और ना ही आरएसएस ने कभी अंग्रेजों का विरोध किया। भारतीय राष्ट्रवाद का यही एकमात्र असली टेस्ट है। कांग्रेस और बोस मूलतः ब्रिटिश विरोधी थे और कुछ मतभेदों के साथ उनके राष्ट्रवाद एक थे।

जब बोस द्वारा गठित आईएनए के वरिष्ठ अधिकारियों पर ब्रिटिश सरकार ने मुकदमे चलाए तब नेहरू उनके बचाव में सामने आए। हिन्दू राष्ट्रवादी शिविर के किसी सदस्य ने आईएनए का बचाव नहीं किया। अब केवल और केवल चुनावी लाभ की आशा में संघ और भाजपापटेल व बोस जैसे नेताओं को अपना बताने के प्रयास में लगे हैं। वे यहां-वहां से बिना संदर्भ के कुछ घटनाओं या कथनों का हवाला देकर पटेल और बोस जैसे महान व्यक्तियों की पीठ पर सवारी करने की कोशिश कर रहे हैं। सच तो यह है कि वे भारतीय राष्ट्रवाद के विरोधी हैं। वे जवाहरलाल नेहरू को बदनाम करने की हरचंद कोशिश कर रहे हैं क्योंकि नेहरूप्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में मजबूती के साथ खड़े थे। पटेल व बोस के नेहरू के साथ कुछ मतभेद रहे होंगे परंतु जहां तक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक मूल्यों का प्रश्न हैइन तीनों नेताओं की मूल विचारधारा एक ही थी। पटेल और नेताजी की विरासत को अपना बताकर संघ,जनता की आंखों में धूल झोंकने का प्रयास कर रहा है। 



(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) 

हिंदी मीडियम” के बहाने जिक्रे सरकारी स्कूल

इस देश में अंग्रेजी कोई जबान नहीं हैयह क्लास हैऔर क्लास में घुसने के लिए एक अच्छे स्कुल में पढ़ने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है” यह मई 2017 में प्रदर्शित “हिंदी मीडियम” का डायलाग है. “हिंदी मीडियम” क ऐसी फिल्म है जो भारतीय समाज में वर्ग भेद  और स्कूली शिक्षा में विभाजन को दिखाती है. यह हमारे मध्यवर्ग के बड़े प्राइवेट स्कूलों में  अपने बच्चों के दाखिले को लेकर आने वाली परेशानियों के साथ उनके  द्वंद  को भी बहुत बारीकी से पेश करती है और अंत में इस  समस्या का हल पेश करने की कोशिश भी करती है. फिल्म बताती है कि किस तरह से किस तरह से शिक्षा  जैसी बुनियादी जरूरत को कारोबार बना दिया गया है  और अब यह स्टेटस सिंबल  का मसला भी बन चूका है. हमारे समाज में  जहाँ अंग्रेजी बोलने को एक खास मुकाम मिलता है जबकि हिंदी बोलने वाली जमात को कमतर समझा जाता है और उनमें भी एक तरह से हीन भावना भी होती है जिसके चलते वे अंग्रेजी बोलने वाली जमात में शामिल होने होने का कोशिश भी करते रहते हैं . 'हिंदी मीडियमकी खासियत यह है की वह एक बहुत ही जटिल और गंभीर विषय को बहुत ही  आसान और दिलचस्प तरीके से पेश करती है. यह एक व्यंग्यात्मक शैली की फिल्म है जो दर्शकों को सोचने को भी मजबूर करती है.  

यह शायद पहली फिल्म है जो शिक्षा का अधिकार अधिनियम को लेकर इतने स्पष्ट तरीके से बात हुए उसकी खामियीं को उजागर करती है. ज्ञात हो कि शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के तहत प्राइवेट स्कूलों में गरीब  वंचित वर्ग के 25प्रतिशत बच्चों को प्रवेश देना अनिवार्य है जिसका खर्च खर्च सरकार उठाती है. लेकिन प्राइवेट स्कूलों द्वारा इसका ठीक से पालन नहीं किया जाता है पालन नहीं किया गया है. इस प्रावधान को लेकर प्राइवेट स्कूलों और अभिभावकों की तरह से यह भी कहा जाता है कि गरीब और वंचित वर्ग के बच्चों को उनके बच्चों के साथ पढ़ना ठीक नहीं है क्यूंकि गरीब वर्गों के बच्चे होते हैं , गाली देते हैं और उनके पढ़ाई और सीखने का लेवल भी कम होता है .
हिंदी मीडियम में  दिखाया गया है कि की कैसे एक अमीर परिवार  इस कानून की खामियों का सहारा लेकरअपने बच्चे का एडमिशन एक बड़े प्राइवेट स्कूल  में  बी.पी.एल. कोटे से कराने में सफल हो जाता हैयह एक नव-धनाढ्य परिवार द्वारा अपने बेटी की शहर के नामी स्कूलों दाखिला दिलाने को लेकर किये जाने वाले जोड़-तोड़ की कहानी है .
 फिल्म की कहानी के केंद्र में राज बत्रा (इरफान खान) और मीता (सबा करीम) नाम की दंपति है जो दिल्ली के चांदनी चौक की रहने वाली है. राज बत्रा कपड़े का व्यापारी है उसने अपने खानदानी बिजनेस को आधुनिक तरीकों से आगे बढ़ाते हुए काफी तरक्की कर ली है . उसके पास कपड़ों का एक बड़ा शो-रूम हो गया है. जिसके बाद यह परिवार चांदनी चौक छोड़कर वसंत विहार की पाश कालोनी में रहने पहुंच जाते हैं. यहाँ तक तो सब ठीक चलता है इसके बाद यह मीता इसलिए परेशान रहने लगती है क्यूंकि उसके पति को अंग्रेजी नहीं आती है जिसके चलते  वो 'क्लासलोगों में उठने-बैठने में असहज महसूस करती है.
राज व मीता अपनी बेटी पिया को दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ गिने जाने वले पांच अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में प्रवेश दिलाने का फैसला करते हैं और फिर दोनों जी-जान से लग जाते हैं कि किसी भी तरह से  उनकी बेटी का टॉप अंग्रेजी स्‍कूल में दाखिला हो जाए. इसके लिये वे एक कंसल्टेंट की मदद लेते हैंजो उन्हें अभिभावक के रूप में इंटरव्यू फेस करने की ट्रेनिंग देती है. लेकिन सारी कोशिशें के बावजूद वे नाकाम होते हैं. फिर कंसल्टेंट द्वारा उन्हें सुझाव दिया जाता है कि अपने पसंदीदा स्कूल में बेटी को प्रवेश दिलाने के लिए उन्हे राइट टू एज्यूकेशन’ के तहत हर प्राइवेट स्कूल में तय पच्चीस प्रतिशत गरीबों  के कोटे का सहारा लेना चाहिए. इसके लिए वह गरीब होने के कागजात जुटा लेते हैं. बाद में उन्हें जब पता चलता है कि स्कूल वाले घर देखने भी आएंगे तो वह अपनी पत्नी और बेटी के साथ एक झुग्गी-बस्ती में शिफ्ट हो जाते हैं. . जहां उनका पड़ोसी श्याम प्रकाश (दीपक डोबरियाल)उसकी पत्नी व बेटा मोहन रह रहा है. श्याम प्रकाश अपनी तरफ से राज की मदद करने का पूरा प्रयास करता है. जब 24 हजार जमा करने का वक्त आता है,तो श्याम प्रकाश खुद की जिंदगी खतरे में डालकर राज को पैसा देता है. पर जब गरीब कोटे की लाटरी निकलती हैतो श्याम प्रकाश के बेटे को तो स्कूल में प्रवेश नहीं मिलता हैपर राज व मीता अपनी बेटी पिया को मिल जाता है. इसके बाद  राज व मीता अपनी बेटी पिया के साथ वापस अपने पाश मकान में रहने चले जाते हैं. लेकिन अपराध बोध से ग्रस्त होते हैं और इसे दूर करने के लिए वे राज एक सरकारी स्कूल को पैसे देकर उसका  हालात सुधारने में मदद करने लगते हैं लेकिन राज  के अनादर से यह एहसास नहीं जाता है कि उसने किसी गरीब का हक मारा हैऔर अंत में राज व मीता अपनी बेटी पिया को अंग्रेजी स्कूल से निकाल कर श्याम प्रकाश के बेटे मोहन के साथ सरकारी स्कूल में प्रवेश दिला देते हैं.
फिल्में मनोरंजन के साथ-साथ सन्देश देने और नजरिया पेश करने का जरिया भो होती हैं “हिंदी मीडियम   यह दोनों काम करती है. यह जिस तरह से शिक्षा जैसे सामाजिक सरोकार के मसले को सिनेमा की भाषा में परदे पर पेश करती है वो काबिलेतारीफ है. फिल्म का अंत बहुत की क्रूर तरीके से समाज की मानसिकता को दिखता है जहाँ सामान शिक्षा के बारे में सोचने और बात करने वाले लोग  हाशिये पर रहते हैं. समाज की तरह यहाँ भी नायक अकेला खड़ा नजर आता है

पाक - भारत दक्षिणपंथियों में समानतायें By Javed Anis (जावेद अनीस) - March 01, 2019

वैसे तो हमारे देश व पाकिस्तान के बीच में अनेक असमनताएं हैं परंतु एक समानता है। और यह समानता दोनों देषों की दक्षिणपंथी ताकतों के बीच में है। यह समानता है सर्वोच्च न्यायालय के उन निर्णयों को न मानना जिनका चरित्र एक उदारसमतामूलक एवं प्रगतिषील समाज के निर्माण में सहायक होता है।

अभी हाल में दिए गए दो ऐसे निर्णयों का उल्लेख प्रासंगिक होगा। इनमें से एक निर्णय पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने दिया है एवं दूसरा हमारे देष के सर्वोच्च न्यायालय ने।
पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में एक गरीब ईसाई महिला को दिए गए मृत्यु दंड को रद्द कर दिया था। इस महिला का नाम आसिया है जो पिछले कई वर्षों में जेल के सींखचों के पीछे थी। वहां की निचली अदालत ने आसिया को मृत्युदंड दिया था। उसने इस निर्णय के विरूद्ध वहां के हाईकोर्ट में अपील की थी। आसिया को ईष निंदा का दोषी पाया गया था। पाकिस्तान के कानून के अनुसार इस्लाम के विरूद्ध निंदात्मक टिप्पणी करने पर मृत्युदंड दिया जा सकता है।

आसिया एक खेतिहर मजदूर है। एक दिन काम के दौरान उसे प्यास लगी और उसने मुसलमान मजदूरों के पात्र. से पानी लेकर पी लिया। इसपर उसके साथी मजदूरों ने आपत्ति की। इसपर आसिया ने कुछ ऐसे शब्द कह दिए जो कानून के अनुसार ईष निंदा की श्रेणी में आते थे। इसके बाद यह मामला अदालत में पहुंचा और अदालत ने उसे ईषनिंदा का दोषी मानते हुए मौत की सजा सुनाई। उसने इस फैसले के खिलाफ अपील की। मामला पहले हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा।

सुप्रीम कोर्ट ने उसे मृत्युदंड की सजा से मुक्त कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के विरूद्ध पाकिस्तान में जबरदस्त आंदोलन हुआ। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बावजूद आसिया असुरक्षित है। दक्षिणपंथियों का पाकिस्तान में भारी दबदबा है और वे उसे जान से मारना चाहते हैं। इस धमकी के चलते वह किसी अन्य देष में शरण लेने के लिए मजबूर है।

आसिया पिछले कई वर्षों से जेल में है। पाकिस्तान के पंजाब राज्य के तत्कालीन गर्वनर सलमान तासीर ने जेल जाकर आसिया से मुलाकात की और ईष निंदा कानून के खिलाफ आवाज उठाई। उनकी यह हरकत‘ दक्षिणपंथियों को नागवार गुजरी और उन्होंने तासीर के खिलाफ जबरदस्त अभियान छेड़ दिया। इस अभियान के कारण माहौल इस हद तक जहरीला हो गया कि तासीर के मलिक मोहम्मद कादरी नामक एक सुरक्षाकर्मी ने ही 4 जनवरी 2011 को उनकी हत्या कर दी। पाकिस्तान में इस सुरक्षाकर्मी के सम्मान में कई जुलूस निकाले गए और उसे वैसा सम्मान दिया गया जो साधारणतः एक हीरो को दिया जाता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने आसिया को राहत तो दी परंतु न्यायालय ने इस अत्यधिक जघन्य कानून के संबंध में किसी प्रकार की टिप्पणी नहीं की। यदि कोई जज ऐसी टिप्पणी करता तो उसके लिए भी जिंदा रहना मुष्किल हो जाता। आज भी पाकिस्तान में कोई व्यक्ति इस कानून के विरूद्ध आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करता।

हमारे देष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दक्षिणपंथी विचारों और ताकतों का सबसे बड़ा प्रतिनिधि है। सर्वोच्च न्यायालय ने अभी हाल में केरल के सबरीमाला मंदिर के बारे में एक ऐतिहासिक निर्णय दिया है। परंपरा के अनुसार इस मंदिर में 10 से 50 आयुवर्ग की महिलाओं का प्रवेष वर्जित था। इस आयु समूह की महिलाएं रजस्वला हो जाती हैं और इस दौरान उन्हें अपवित्र माना जाता है। चूंकि वे अपवित्र होती हैं इसलिए सबरीमाला में उनका प्रवेष वर्जित है।

इस मुद्दे को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई। काफी लंबे समय तक चली सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में इस प्रतिबंध अवैधानिक और भेदभावपूर्ण बताते हुए आदेष दिया कि हर आयु की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेष दिया जाए। हिन्दुओं के एक बड़े हिस्से ने इसे हिन्दू धर्म की परंपराओं में अनुचित हस्तक्षेप माना। इस विरोध का आरएसएस ने संगठित रूप से विरोध प्रारंभ किया और केरल में जबरदस्त आंदेलन छेड़ दिया। 

दिनांक 31 जनवरी 2019 विष्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित धर्मसंसद को संबोधित करते हुए राष्टीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागव ने कहा कि अयप्पा मंदिर (सबरीमाला) की परंपरा में आस्था रखने वाले हिन्दू समाज का अविभाज्य अंग हैं। निर्धारित आयु समूह की महिलाओं को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बावजूद सबरीमाला मंदिर में नहीं जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय धार्मिक मामलों में अनुचित हस्तक्षेप कर रहा है। उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि श्रीलंका से हिन्दू महिलाआें को लाकर मंदिरों में प्रवेष दिलाया गया।

प्रयागराज में आयोजित धर्म संसद मं एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसके द्वारा सबरीमाला में प्रवेष के मुद्दे को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण से जोड़ा गया। भागवत ने कहा कि सबरीमाला एक सार्वजनिक स्थल नहीं है। वह एक ऐसा स्थल है जिसकी अपनी परंपरा और अनुषासन है। सर्वोच्च न्यायालय यह बात भूल गया गया कि उसके इस निर्णय से करोड़ों हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचेगी। भागवत ने यह घोषणा भी की कि एक फरवरी से संपूर्ण देष में एक अभियान चलाया जाएगा। 15 फरवरी तक चलने वाले इस अभियान के माध्यम से यह बताया जाएगा कि अयप्पा मंदिर के भक्त हिन्दू समाज के अभिन्न अंग हैं और उनकी समस्या संपूर्ण हिन्दू समाज की समस्या है।

साधारणतः यह समझा जाता है कि वामपंथी प्रजातंत्र और प्रजातांत्रिक समाज में स्थापित संस्थाओं में आस्था नहीं रखते हैं। परंतु हमारे देष में स्थिति पूरी तरह भिन्न है। न सिर्फ सबरीमाला के मामले में वरन् कई अन्य मामलों में वामपंथी प्रजातांत्रिक समाज की संस्थाओं की रक्षा के लिए अग्रणी पंक्ति में रहे हैं। केरल की वामपंथी सरकार अपनी पूरी ताकत से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को अमलीजामा पहनाने के लिए प्रतिबद्ध है। न सिर्फ सरकार वरन् वहां का समाज,विषेषकर महिलाएंपूरी तरह से वहां की वामपंथी सरकार को सहयोग दे रही हैं।

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के समर्थन में केरल की महिलाओं ने भारी-भरकम अभियान चलाया। इस अभियान में लगभग 50 लाख महिलाओं  ने मानव श्रृंखला बनाई। इस मानव श्रृंखला को दुनिया की अबतक की सबसे बड़ी मानव श्रृंखला माना गया। संभव है इस मानव श्रृंखला में भाग लेने वाली महिलाओं के बारे में भी भागवत यह कहें कि इन्हें श्रीलंका से लाया गया था।

भागवत यह बात जानते होंगे कि एक देष के नागरिक को दूसरे देष में जाने के लिए वीजा लेना पड़ता है और वीजा दूतावास द्वारा जारी किया जाता है जिसपर केन्द्र सरकार का नियंत्रण होता है। क्या केन्द्र सरकार ने इन 50 लाख महिलाओं को वीजा दिया थाभागवत का यह वक्तव्य हास्यास्पद है।

अतः पुनः यह कहना उचित होगा कि पाकिस्तान और भारत के दक्षिणपंथियों के बीच अद्भुत समानता है। पाक-भारत दक्षिणपंथी जिन्दबाद.

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के पांच साल

सामाजिक और आर्थिक विकास के पैमाने पर देखें तो भारत की एक विरोधाभासी तस्वीर उभरती है, एक तरफ तो हमदुनिया के दूसरे सबसे बड़े खाद्यान्न उत्पादक देश है तो इसी के साथ ही हम कुपोषण के मामले में विश्व में दूसरे नंबर पर हैं. विश्व की सबसे तेज से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के साथ ही दुनिया की करीब एक-तिहाई गरीबों की आबादी भी भारत में ही रहती है.

विकास के तमाम दावों के बावजूद भारत अभी भी गरीबी और भुखमरी जैसी बुनियादी समस्याओं के चपेट से बाहर नहीं निकल सका है. समय-समय पर होने वाले अध्ययन और रिपोर्ट भी इस बात का खुलासा करते हैं कि तमाम योजनाओं के एलान के बावजूद देश में भूख व कुपोषण की स्थिति पर लगाम नही लगाया जा सका है. वर्ष 2017 में इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) द्वारा जारी वैश्विक भूख सूचकांक में दुनिया के 119 विकासशील देशों में भारत 100वें स्थान पर है जबकि इस मामले में पिछले साल हम 97वें स्थान पर थे. यानी भूख को लेकर हालत सुधरने के बजाये बिगड़े हैं और वर्तमान में हम एक मुल्क के तौर पर भुखमरी की गंभीर’ श्रेणी में हैं. इसी तरह से संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट "स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रीशन इन द वर्ल्ड2017" के अनुसार दुनिया के कुल कुपोषित लोगों में से 19 करोड़ कुपोषित भारत में हैं. देश के पांच साल से कम उम्र के 38 प्रतिशत बच्चे स्टन्टेडकी श्रेणी में हैं यानी सही पोषण ना मिल पाने की वजह से इनका मानसिक, शारीरिक विकास नही हो पा रहा है, महिलाओं की स्थिति भी अच्छी नही है. रिपोर्ट बताती है कि युवा उम्र की 51 फीसदी महिलाएं एनीमिया यानी खून की कमी से जूझ रही.

भारत में कुपोषण और खाद्य सुरक्षा को लेकर कई योजनायें चलायी जाती रही हैं लेकिन समस्या की विकरालता को देखते हुये ये नाकाफी तो थी हीं साथ ही व्यवस्थागत, प्रक्रियात्मक विसंगतियों और भ्रष्टाचार की वजह से भी ये तकरीबन बेअसर साबित हुयी हैं. दरअसल भूख से बचाव यानी खाद्य सुरक्षा की अवधारणा एक बुनियादी अधिकार है जिसके तहत सभी को जरूरी पोषक तत्वों से परिपूर्ण भोजन उनकी जरूरत के हिसाब, समय पर और गरिमामय तरीके से उपलब्ध करना किसी भी सरकार का पहला दायित्व होना चाहिये. खाद्य सुरक्षा के व्यापक परिभाषा में पोषणयुक्त भोजन, पर्याप्त अनाज का उत्पादन और इसका भंडारण, पीने का साफ पानीशौचालय की सुविधा और सभी का स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान पहुंच शामिल है. लेकिन दुर्भाग्य से अधिकार के तौर पर खाद्य सुरक्षा की यह अवधारणा लम्बे समय तक हमारे देश में स्थापित नहीं हो सकी और इसे कुछ एक योजनाओं के सहारे छोड़ दिया गया.

2001 में पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) द्वारा बड़ी मात्र में सरकारी गोदामों में अनाज सड़ने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गयी थी जिसे भोजन के अधिकार केस के नाम से जाना जाता है. इसमें संविधान की धारा 21 का हवाला देते हुये भोजन के अधिकार को जीने के अधिकार से जोड़ा गया. इस जनहित याचिका को लेकर न्यायालय में एक लंबी और ऐतिहासिक प्रक्रिया चली जिसके आधार पर भोजन के अधिकार और खाद्यान सुरक्षा को लेकर हमारी एक व्यापक और प्रभावी समझ विकसित हुयी है. करीब 13 सालों तक चले इस केस के दौरान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये विभिन्न निर्णयों में खाद्य सुरक्षा को एक अधिकार के तौर पर स्थापित किया गया और भोजन के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिये केंद्र व राज्य सरकारों की जवाबदेही तय की गयी.

इसी पृष्ठभूमि में केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2013 में भोजन का अधिकार कानून लाया गया जिसे राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा विधेयक 2013 भी कहते हैं. इस कानून की अहमियत इसलिये है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला कानून है जिसमें भोजन को एक अधिकार के रूप में माना गया है. यह कानून 2011 की जनगणना के आधार पर देश की 67 फीसदी आबादी (75 फीसदी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी) को कवर करता है

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत मुख्य रूप से 4 हकदारियों की बात की गयी है जो योजनाओं के रूप में पहले से ही क्रियान्वयित हैं लेकिन अब एनएफएसए के अंतर्गत आने से इन्हें कानूनी हक का दर्जा प्राप्त हो गया है. इन चार हकदारियों में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), एकीकृत बाल विकास सेवायें (आईसीडीएस), मध्यान भोजन (पीडीएस) और  मातृत्व लाभ शामिल हैं.

जाहिर है भारत में भूख और कुपोषण की समस्या को देखते हुये खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 एक सीमित हल पेश करता ही है,  उपरोक्त चारों हकदारियां सीमित खाद्य असुरक्षा की व्यापकता को पूरी तरह से संबोधित करने के लिये नाकाफी हैं और ये भूख और कुपोषण के मूल कारणों का हल पेश नही करती  हैं लेकिन अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद  भारत के सभी नागिरकों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में इसे एक बड़ा कदम माना जा सकता है.
आज राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को लागू हुये पांच साल हो रहे हैं. लेकिन पिछले करीब पांच साल के अनुभव बताते हैं कि इसे ही लागू करने में हमारी सरकारों और उनकी मशीनिरी ने पर्याप्त इच्छा-शक्ति और उत्साह नहीं दिखाया है .साल 2013 में खाद्य सुरक्षा कानून केर लागू होने के बाद राज्य सरकारों को इसे लागू करने के लिए एक साल का समय दिया गया था लेकिन उसके बाद इसे लागू करने की समयसीमा को तीन बार बढ़ाया गया और इसको लेकर कई राज्य उदासीन भी दिखे. अप्रैल 2016 में कैग (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) द्वारा खाद्य सुरक्षा कानून के क्रियान्वयन में देरी तथा बिना संसद की मंजूरी के ही इसके कार्यान्वयन की अवधि तीन बार बढ़ाने को लेकर केंद्र सरकार पर सवाल उठाये गये थे. दरअसल राज्यों द्वारा खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने में देरी का मुख्य कारण ढांचागत सुविधाओं और मानव संसाधन की कमी, अपर्याप्त बजट और लाभार्थियों की शिनाख्त से जुड़ी समस्यायें रही हैं.
लेकिन सबसे गंभीर चुनौती इसके क्रियान्वयन की रही है, केंद्र और राज्य सरकारों के देश के अरबों लोगों के पोषण सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरत से जुड़े कानून को लेकर जो प्रतिबद्धता दिखायी जानी चाहिये थी उसका अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है और उनके रवैये से लगता है कि वो इसे एक बोझ की तरह देश रहे हैं. जुलाई 2017 में सरकारों के इसी ऐटिटूड को लेकर देश के सर्वोच्य न्यायालय द्वारा भी गंभीर टिप्पणी की जा चुकी है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह बहुत क्षुब्ध करने वाली बात है कि नागरिकों के फायदे के लिए संसद की ओर से पारित इस कानून को विभिन्न राज्यों ने ठंडे बस्ते में रख दिया है. न्यायालय ने कहा कि ‘कानून पारित हुए करीब चार साल हो गएलेकिन प्राधिकारों और इस कानून के तहत गठित संस्थाओं को कुछ राज्यों ने अब तक सक्रिय नहीं किया है और यह प्रावधानों का दयनीय तरीके से पालन दिखाता है.’

राज्यों द्वारा इस कानून के क्रियान्वयन के लिये जरूरी ढांचों जैसे जिला शिकायत निवारण अधिकारी की नियुक्ति, खाद्य आयोग और सतर्कता समितियों का गठन, सोशल आडिट की प्रक्रिया शुरू नहीं की गयी है. अभी भी हालत ये हैं कि मार्च 2018 तक केवल बीस राज्यों द्वारा ही खाद्य आयोग का गठन किया गया है. जिला शिकायत निवारण अधिकारी की नियुक्ति के नाम पर भी खानापूर्ति की गयी है जिसके तहत राज्यों द्वारा कलेक्टर को ही जिला शिकायत निवारण अधिकारी के रूप में नियुक्ति किया गया है जबकि कलेक्टरों के पास पहले से ही ढ़ेरों जिम्मेदारियां और व्यस्ततायें होती हैं ऐसे में वे इस नयी जिम्मेदारी का निर्वाह कैसे कर पायेंगें इसको लेकर सवाल है.

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 05 जुलाई, 2013 को लागू हुआ था जिसके इस साल जुलाई में 6 साल पूरे हो जायेंगें. किसी भी कानून के क्रियान्वयन के लिये यह अरसा काफी होता है. ऐसे में यह मुफीद समय होगा जब मई में गठित होने वाली केंद्र की नयी सरकार इसकी समीक्षा करे  जिससे इन पांच सालों में हुये अच्छे-बुरे अनुभवों से सीख लेते हुये राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधनियम के मूल उद्देश्यों की दिशा में आगे बढ़ा जा सके.

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